रिश्ते किताबों की तरह नहीं होते जिन्हें एक बार पढ़ लिया और बंद कर दिया। रिश्ते तो रोज़ पढ़े जाते हैं — हर भाव, हर खामोशी, हर नज़र और हर थकावट में। और जो रिश्ते वक़्त की कसौटी पर खरे उतरते हैं, वो कभी बड़ी बातों पर नहीं टिकते… वो तो छोटी-छोटी चीज़ों में पलते हैं — एक-दूसरे के लिए रखा गया पानी का गिलास, बिना कहे समझ लेना कि आज बात नहीं करनी है, सिर्फ़ बैठकर साथ चाय पीना और चुप रहना।
पर इन रिश्तों की नींव जिन दो स्तंभों पर टिकी होती है, वो हैं सहनशीलता और सेवा।
सहनशीलता — जो अक्सर हमें कमजोर समझ ली जाती है, असल में किसी रिश्ते की सबसे मजबूत डोर होती है। जब आप किसी की कमज़ोरी को देखकर भागते नहीं, बल्कि उसे और कसकर थाम लेते हैं, वही सहनशीलता है। जब आप जानते हैं कि सामने वाला सही नहीं है, फिर भी उसे उस वक़्त सहारा दे देते हैं, क्योंकि आप उस इंसान को हारते हुए नहीं देख सकते — वही सच्चा प्रेम है।
रिश्तों में कई बार ऐसा समय आता है जब शब्द बेअसर हो जाते हैं। एक-दूसरे की थकान, चिड़चिड़ापन, और मन की उलझनों को न तो समझाना आसान होता है और न ही बयान करना। ऐसे वक़्त में सहनशीलता ही होती है जो उस खामोशी को भी सुन लेती है। ये वो प्रेम है जो लड़ाई के बाद भी रसोई में उसका पसंदीदा खाना रख देता है, जो कहता नहीं, पर हर बार इंतज़ार करता है कि वह ठीक होकर लौटे।
और फिर है सेवा — जो शायद इस भागदौड़ भरी दुनिया में सबसे कम समझी जाने वाली भाषा है। सेवा का मतलब सिर्फ़ किसी की मदद करना नहीं होता — सेवा का मतलब है, प्रेमपूर्वक किसी की ज़िम्मेदारी को महसूस करना। अपने स्वार्थों से ऊपर उठकर किसी के लिए जीना, बिना किसी गिनती के। जब आप उसके लिए वो करते हैं जो वो खुद भी अपने लिए नहीं कर पा रहा, जब आप उसकी उलझनों को बिना बताए सुलझा देते हैं — वो सेवा है।
सेवा प्रेम की वो चुप पराकाष्ठा है, जो कहती नहीं कि "मैं हूँ", लेकिन हर वक़्त दिखती है। वो रोज़ सुबह ऑफिस जाते वक़्त उसके टिफिन में रखा हुआ छोटा सा 'Have a good day' का नोट है। वो है — जब आप खुद थके हों, पर उसके दर्द को पहले राहत दो। ये सेवा कोई अहसान नहीं — ये वो प्रेम है जिसमें “तुम” का सुख, “मैं” की थकान से ऊपर होता है।
सच्चे रिश्ते कभी बराबरी नहीं माँगते। वहाँ कोई मोल-भाव नहीं होता। वहाँ कोई हिसाब नहीं होता कि "मैंने इतना किया, तुमने क्या किया।" क्योंकि वहाँ प्रेम, व्यापार नहीं — एक यात्रा होती है, जो हम साथ तय करते हैं। एक ऐसा सफ़र जहाँ हम एक-दूसरे की कमज़ोरियों को ढाँकते हैं, अच्छाइयों को थामते हैं, और जब कभी कोई बिखरने लगे — तो खुद को थोड़ा और जोड़ते हैं ताकि वो सहेजा जा सके।
ऐसे रिश्तों में शब्द गौण हो जाते हैं और भावनाएँ बोलने लगती हैं। वहाँ "मैं सही हूँ, तुम गलत" नहीं होता — वहाँ सिर्फ़ ये होता है कि "तुम मेरे हो, चाहे जैसे भी हो।" और शायद इसी वजह से ये रिश्ते वक़्त के साथ पुराने नहीं होते — वो उम्र की रेखाओं में और भी गहराते जाते हैं।
क्योंकि अंत में, प्रेम ना तो शोर करता है, ना ही मंच माँगता है।
प्रेम तो वहाँ होता है — जहाँ आप थके हुए लौटें और कोई चुपचाप आपके सिर पर हाथ फेर दे।
जहाँ गलती होने पर डाँट नहीं, बल्कि आँखों में नमी मिले।
जहाँ आपकी खामोशियाँ किसी को परेशान कर दें, सिर्फ़ इसलिए कि वो आपकी खुशी को जीता है।
ऐसे रिश्तों को ना परिभाषा चाहिए, ना कोई प्रमाण।
उन्हें सिर्फ़ दो चीज़ें चाहिए — सहनशीलता का धैर्य और सेवा की निःशब्द भावना।
बाकी सब तो प्रेम खुद सिखा देता है…