Tuesday 1 July 2014

आज के रिश्ते


 बनते है ,फिर बिगड़े भी
और फिर टूटते है ,
लेकिन यही कहलाते
 रिश्ते है।

बातों  पर सोचना मिलकर
 एक रोये तो
उसे रोकना मिलकर ,
यदि हो कोई आपदा
या विपदा ,
लड़ना उसे हराकर ,
अपनो जख्मों पर
रिश्तों का मरहम लगाना
यही कहलाते
 रिश्ते थे।

समय का ऐसा फेर आया ,
सभी एक ही
सूत्र में समाया,
बच्चों पर तो
प्रेम आता है,
पर अब निगाहे
अपना और पराया दर्शाता है।

दुःख में अगर न हो
अपनो  का साथ,
तो सुख क्या
दरवाजा खट -खटाएगा ,
मौसमों के  इस फेर में
क्या फिर से
वही  अपना  सा
बहार आएगा?



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